50 Krishna Quotes from the Bhagavad Gita in Hindi

  1. “कर्म का फल देने का अधिकार तुम्हारा है, कर्म का फल मांगने का नहीं।” – भगवद गीता, अध्याय 2, श्लोक 47
  2. “अपने कर्म करते जाओ, फल की चिंता मत करो।” – भगवद गीता, अध्याय 2, श्लोक 50
  3. “मनुष्य की शक्ति उसकी इच्छा से होती है।” – भगवद गीता, अध्याय 2, श्लोक 56
  4. “भगवान के बिना कोई भी कुछ भी संभव नहीं है।” – भगवद गीता, अध्याय 9, श्लोक 22
  5. “जो कुछ भी हुआ, अच्छा हुआ। जो हो रहा है, अच्छा हो रहा है। जो होगा, वह भी अच्छा होगा।” – भगवद गीता, अध्याय 18, श्लोक 66
  6. “आपके कर्म ही आपके दर्शन को प्राप्त करवा सकते हैं।” – भगवद गीता, अध्याय 4, श्लोक 11
  7. “कर्म उसे बंधता है जो कर्मों के फल में आसक्ति रखता है, जबकि ज्ञानी कर्मों को करता है, लेकिन फलों में आसक्ति नहीं रखता।” – भगवद गीता, अध्याय 3, श्लोक 28
  8. “विद्या विनय सम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि। शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः।।” – भगवद गीता, अध्याय 5, श्लोक 18
  9. “आपके द्वारा किए गए कर्म आपके द्वारा दान के रूप में दिये जाने चाहिए, बिना किसी आकर्षण या द्वेष के।” – भगवद गीता, अध्याय 17, श्लोक 20
  10. “कोई भी कर्म बड़ा नहीं होता, कर्म करने वाले का भाव बड़ा होता है।” – भगवद गीता, अध्याय 18, श्लोक 41

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  11. “अपने कर्मों के प्रति समर्पण करो, फल की चिंता मत करो।” – भगवद गीता, अध्याय 18, श्लोक 66
  12. “जीवन के संघर्ष में धैर्य और साहस होना आवश्यक है।” – भगवद गीता, अध्याय 18, श्लोक 36
  13. “भगवान को याद करके आपका कर्म करो और उसका फल उसे समर्पित करो।” – भगवद गीता, अध्याय 18, श्लोक 57
  14. “वही सच्चा ज्ञानी है जो जीवों में भगवान को देखता है और उनके सब में समानता मानता है।” – भगवद गीता, अध्याय 6, श्लोक 29
  15. “यदि तुम खुद के लिए कुछ करते हो तो वह अहंकार है, लेकिन दूसरों के लिए कुछ करना सेवा है।” – भगवद गीता, अध्याय 3, श्लोक 27
  16. “कर्म करो, लेकिन उसके फल की आसक्ति मत करो।” – भगवद गीता, अध्याय 2, श्लोक 47
  17. “कर्म करने में लगे रहो, फल की चिंता मत करो।” – भगवद गीता, अध्याय 2, श्लोक 108
  18. “कर्मयोगी को कर्म में आसक्ति नहीं, फल में आसक्ति नहीं होती।” – भगवद गीता, अध्याय 6, श्लोक 1

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  19. “आपके जीवन का उद्देश्य आपके द्वारा चुना जाता है, और आपके कर्मों के माध्यम से प्राप्त किया जाता है।” – भगवद गीता, अध्याय 18, श्लोक 43
  20. “जब आप आत्मा को पहचान लेते हैं, तब आपका दर्शन सच्चा हो जाता है।” – भगवद गीता, अध्याय 6, श्लोक 30
  21. “किसी को भी अपने कर्म के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता, क्योंकि कर्म स्वतंत्र होता है।” – भगवद गीता, अध्याय 18, श्लोक 59
  22. “आपके कर्म ही आपके व्यक्तित्व का प्रतीक हैं।” – भगवद गीता, अध्याय 18, श्लोक 61
  23. “सही और गलत का ज्ञान रखने वाला ही ज्ञानी होता है।” – भगवद गीता, अध्याय 2, श्लोक 16
  24. “जीवन की सबसे बड़ी प्राप्ति, आत्मा का आत्मा के द्वारा जाना जा सकता है।” – भगवद गीता, अध्याय 6, श्लोक 5
  25. “सब कुछ भगवान की इच्छा के अनुसार होता है, और हमें उसे स्वीकार करना चाहिए।” – भगवद गीता, अध्याय 18, श्लोक 14

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  26. “कर्म करते समय आपकी चिंता सिर्फ कर्म की होनी चाहिए, फल की नहीं।” – भगवद गीता, अध्याय 2, श्लोक 48
  27. “आत्मा अविनाशी है, यह कभी नष्ट नहीं हो सकती।” – भगवद गीता, अध्याय 2, श्लोक 20
  28. “आपके कर्म ही आपके दर्शन को प्राप्त करवा सकते हैं।” – भगवद गीता, अध्याय 4, श्लोक 11
  29. “ध्यान के माध्यम से ही आप आत्मा को पहचान सकते हैं।” – भगवद गीता, अध्याय 6, श्लोक 8
  30. “आपके कर्म आपके आत्मा की ओर दिशा प्रदर्शन करते हैं।” – भगवद गीता, अध्याय 4, श्लोक 21
  31. “आत्मा कभी न आती है, और वो कभी न जाती है। वह अजर, अमर और अविनाशी है।” – भगवद गीता, अध्याय 2, श्लोक 20
  32. “कर्म करो, लेकिन उसके फल की आकांक्षा न करो।” – भगवद गीता, अध्याय 3, श्लोक 19
  33. “जीवन का उद्देश्य आत्मा को पहचानना और उसके साथ एक होना चाहिए।” – भगवद गीता, अध्याय 6, श्लोक 30
  34. “भगवान का नाम सबसे श्रेष्ठ ध्यान है।” – भगवद गीता, अध्याय 10, श्लोक 25
  35. “आत्मा अक्षर, अजर, अमर है, उसे कोई नहीं मार सकता।” – भगवद गीता, अध्याय 2, श्लोक 24
  36. “कर्म करते समय भगवान की स्मृति में रहो, और उसके लिए कर्म करो।” – भगवद गीता, अध्याय 8, श्लोक 7
  37. “कर्म और भक्ति के माध्यम से ही आत्मा को पहचाना जा सकता है।” – भगवद गीता, अध्याय 18, श्लोक 57
  38. “आत्मा कभी न व्यय होती है, वो सदैव अच्छी ही होती है।” – भगवद गीता, अध्याय 2, श्लोक 24
  39. “आत्मा ब्रह्म में एकरूपी होती है, इसलिए वह सबके लिए समान होती है।” – भगवद गीता, अध्याय 5, श्लोक 29
  40. “आपके कर्म आपके आपको जाने का माध्यम होते हैं, जो आत्मा के रूप में अनुभव होता है।” – भगवद गीता, अध्याय 18, श्लोक 55

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  41. “कर्म करने का यदि आपका आलस्य हो, तो यह अवसर आपके पास बार-बार नहीं आता।” – भगवद गीता, अध्याय 2, श्लोक 40
  42. “आत्मा का आत्मा से संयोग होना चाहिए, क्योंकि वह सबका सर्वश्रेष्ठ मित्र होता है।” – भगवद गीता, अध्याय 6, श्लोक 5
  43. “कर्म करते समय फल की चिंता करने वाला कर्मयोगी अज्ञानी होता है।” – भगवद गीता, अध्याय 2, श्लोक 49
  44. “कर्मों का परित्याग नहीं, कर्मों का फल का परित्याग करो।” – भगवद गीता, अध्याय 3, श्लोक 9
  45. “आत्मा सदैव शांत और संतुलित रहने चाहिए।” – भगवद गीता, अध्याय 6, श्लोक 7
  46. “कर्म को त्याग कर देने से निष्काम कर्म नहीं होता, बल्कि उसका अच्छा फल होता है।” – भगवद गीता, अध्याय 6, श्लोक 4
  47. “कर्मयोगी वह होता है जो कर्म करता है, लेकिन उसके फल में आसक्ति नहीं होती।” – भगवद गीता, अध्याय 6, श्लोक 1
  48. “आपके कर्म आपके अंतरात्मा को जाने का माध्यम होते हैं।” – भगवद गीता, अध्याय 2, श्लोक 49
  49. “भगवान की भक्ति सबके लिए एकसमान है, कोई भी उसे कर सकता है।” – भगवद गीता, अध्याय 9, श्लोक 32
  50. “आत्मा का आत्मा में विश्वास करना चाहिए, क्योंकि वह अनंतर्यामी होता है।” – भगवद गीता, अध्याय 10, श्लोक 20

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